दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे श्रावक संयम साधना शिविर के मध्य प्रवचन करते हुए कहा कि कुटिलता छोड़ना, मायाचारी का त्याग करना, सबलता पूर्वक आचरण करना ही ‘आर्जव धर्म’ है। कुटिल विचार नहीं करना, कुटिल कार्य नहीं करना, कुटिल चर्चा नहीं करना, कुटिल बात नहीं बोलना, कुटिलता पूर्वक अपने दोष नहीं छिपाना अर्थात् सरलता ही ‘आर्जव- धर्म है। जैसे हो, जैसा दिखो। कुटिलता का परिणाम ही मायाचारी हैं, मायाचारी के अभाव में आर्जव धर्म प्रकट होता है। मायाचार के फल से जीव निर्यञ्च पर्याय को प्राप्त करता है। धोखा देना, दगा देना ही मायाचारी है। जैसा न हो, वैसा दिखाना, यही मागचारी है। सहज, सरल परिणाम ही ‘आर्जव धर्म है।
यदि मनुष्य आयु का बंद करके जीव ने मायाचारी की, तो मनुष्य पर्याय को तो आज करेगा परन्तु स् त्रिबनेगा और मनुष्य गति का बंध नहीं किया हो और मायाचारी की तो ‘तिर्यञ्च बनना पड़ेगा। मत करो, माया परिणाम। सरलता से सुख मिलता है, कुटिलता दुःख का कारण है। मायाचारी प्रकट होने पर वह व्यक्ति बहुत दुखी होता है। मायाचारी दुखरूप है। कुटिलता मत करो, कुशलता पूर्वक जीवन जियो। ठगने का परिणाम ही, मायाचारी है। दुनिया में संसारी जीव इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए, शक्ति-हीनता, दृढ़ता के अभाव में, नाम-बढ़ाई के लिए मायाचारी करता है। कुटिलता ही मायाचारी है। पुण्यक्षीण की इच्छायें अनन्त होती है, आकांक्षाओं की जब पूर्ति नहीं होती तो वह जीव मायाचारी करना प्रारम्भ कर देता है। पुण्य से अधिक, समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता।
मायाचारी करने वाले का चित्त कभी भी पवित्र नहीं होता है। सदाचारी का चित्र निर्मल होता है। सदाचार से शुन्य धर्म नहीं होता है। सहजता का जीवन जियो, आर्जव धर्म धारण करो। सरलता पूर्ण जीवन ही श्रेष्ठ और शांतिकारक होता है। कुटिलता से शांति नहीं मिलती, कुटिलता दुःख, अशांति को प्रदन करती है। जीवन में सरलता अत्यंत कठिन है। सरलता का जीवन जियो, सरलता का व्यवहार करो।