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22 अप्रैल पृथ्वी दिवस पर विशेष

*धरती का बुखार बढ़ता जा रहा है*

बचपन में हिंदी विषय के अंतर्गत महाकवि कालिदास जी की जीवनी को पढ़ते समय मन में विचार आता था कि क्या कोई इतना मूर्ख व्यक्ति हो सकता है कि जिस शाख पर वह बैठा है और वह उसी को काट रहा हो। मगर आज 54 वर्ष की उम्र आते आते मैं इस प्रश्न का उत्तर हां में पाता हूं। आज के परिदृश्य में एक कालिदास नहीं असंख्य कालिदास नजर आते है, जिनको यह मालूम है कि प्रकृति के साथ छेड़ छाड़ का मतलब विनाश, मगर छद्म विकास की ऐसी धुन की विकास के सामने विनाश नजर नहीं आता।
आज मानव उस दोराहे पर खड़ा है कि वो अगर विकास की राह छोड़ प्रकृति की राह पकड़े तो जीवन तो मिलेगा मगर बुखमारी के रूप में मौत निश्चित है और अगर विकास की राह पकड़ कर पेट की भूख शांत करता है तो प्रकृति मानव को उसके कृत्य के लिये दण्डित करने को लालायित नजर आती है। आखिर करे तो क्या करे?
जिस प्रकार अप्रैल के महीने में ही गर्मी अपना प्रकोप दिखाने लगी है उसको देख कर तो रूह कांपने लगी है। मैदानों के साथ साथ पर्वतराज भी तप रहे है। विगत 6 अप्रैल को हम गंगोत्री में थे और उस दिन का गंगोत्री में तापमान 15 डिग्री था जबकि दिल्ली का तापमान 42 डिग्री था। जबकि अप्रैल का मतलब गंगोत्री में बर्फ होनी चाहिए थी मगर वह सिर्फ थी में ही रह गई अर्थात बर्फ नदारद थी। इतना भयंकर परिवर्तन अब तक के 54 वर्ष की उम्र में नही देखा, जो यह बताता है कि विनाश नजदीक है। जलवायु परिवर्तन के लक्षण नजर आने लगे, मगर न समाज को और न ही सरकारों कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आता।
जिस प्रकार धरती का बुखार बढ़ रहा है, वह शुभ संकेत नहीं है। जिसका असर कृषि, मानव स्वभाव, पशुपक्षी के व्यवहार पर भी नजर आना प्रारंभ हो चुका है। पशु हिंसक व्यवहार करने लगे है, फसलों पर विपरीत प्रभाव नजर आना प्रारंभ हो चुका है जिस वजह से उत्पादन क्षमता पर प्रभाव पड़ना प्रारंभ हो गया है, मानव को गर्मी से निजात पाने के लिए अधिक विद्युत की आवश्यकता है जबकि उत्पादन कम होने की वजह से विद्युत की कटौती स्वाभाविक है। तापमान बढ़ा तो स्वाभाविक है कि जल की मांग ज्यादा होगी, मगर अभी से ही जलाशय सूखने प्रारम्भ हो चुके है इसीलिए राजस्थान में अभी से ही वाटर ट्रेन चलानी पड़ गई है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में जहां 141 सेंटीमीटर वर्षा होती थी वही नब्बे का दशक आते आते 119 सेंटीमीटर रह गई। वहीं भारत में प्रति व्यक्ति पेड़ो की संख्या मात्र 28 ही रह गई है, जबकि एक समृद्ध और स्वस्थ राष्ट्र के लिए 500 से अधिक प्रति व्यक्ति पेड़ो की संख्या होनी चाहिए। इन सब के बावजूद मानव छद्म विकास की रट लगाए हुए है और पेड़ों की बलि निरंतर दी जा रही है।
आज आवश्यकता है कि मानव-समाज अपने व्यवहार में परिवर्तन लाए। मानव-समाज के छोटे छोटे प्रयास भी प्रकृति को जीवन दे सकती है। जैसे:- *हमें अपनी आवश्यकताओ पर पुनर्विचार करना होगा, *सब को जानकारी है कि प्लास्टिक और पॉलीथिन हानिकारक है तो उनसे दुरी बनानी होगी, *प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की जगह आवश्यकता अनुसार इस्तेमाल करना सीखना होगा, *हर उस गतिविधियों से दुरी बनानी होगी जो प्रदूषण को बढ़ावा देती हो, *अगली पीढ़ी में प्रकृति संस्कार को बढ़ावा देना होगा।
वैसे सरकारें समाज का आईना होती है, समाज जो चाहता है उसी प्रकार लुटियंस की दिल्ली अपना व्यवहार, आचरण और भाषा का निर्माण करती है। अगर आज सरकार विकास का सपना दिखलाती है तो इसका मतलब समाज वो चाहता है। मगर समाज और सरकारों का दायित्व यह भी बनता है कि जीवन प्रदान करने वाली प्रकृति का भी सम्मान करे। आज छद्म विकास के अंतर्गत आलवैदर रोड के नाम पर लाखों पेड़ काटे जा रहे हो, विगत दिनों में मुंबई के आरे के जंगलों से 10 हजार से ज्यादा पेड़ रातों रात काट दिए गए हो, हीरो की खोज के नाम पर मध्यप्रदेश के बकस्वाहा के जंगल उजड़े जा रहे हो या ब्यासी जल विद्युत परियोजना के लिए गांव के गांव उजाड़ दिए गए हो। इन सब पर भी समाज को सोचना पड़ेगा। हम सिर्फ व्यवस्थाओं को दोषी मानते हुए हाथ पर हाथ रख कर भी नहीं बैठ सकते, आज हर व्यक्ति को अपने अपने स्तर पर प्रकृति के लिए कार्य करना होगा।
जिस प्रकार मनुष्य बुखार हो जाने के उपरांत पानी की पट्टी का इस्तेमाल करता है। उसी प्रकार मानवनिर्मित विकास रूपी रेड-हीट को कम कर पेड़ो वाली ग्रीन-हीट को स्थापित करना होगा वही ग्रीन-हीट बदल रूपी ब्ल्यू-हीट को अपनी ओर अग्रसित कर वर्षा करा सकती है और तब ही धरती का बुखार कम होगा, तब ही मानव सभ्यता बच पाएगी।
मानव को समझना होगा कि प्रकृति से मानव है न कि मानव से प्रकृति।
संजय राणा
निदेशक
एनवायरनमेंट एंड सोशल रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (एस्रो)

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