गुड मॉर्निंग न्यूज़टॉप न्यूज़संपादकीय
Trending

लाला हरदयाल : लंदन में किया था असहयोग का आह्वान

क्रान्तिकारी लाला हरदयाल के जन्म दिवस (14 अक्टूबर) पर विशेष

रमेश शर्मा

सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी और विचारक लाला हरदयाल की गणना उन विरले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में होती है जिन्होंने अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध भारत, अमेरिका और लंदन में अभियान चलाया और राष्ट्र जागरण की अलख जगाई। लालाजी ने अंग्रेजों का हर प्रलोभन ठुकराया। अंग्रेजों ने लंदन में उन्हें उस समय की सबसे प्रतिष्ठित आईसीएस पद की भी पेशकश की, जिसे लालाजी ने ठुकरा दिया था। यही आईसीएस सेवा अब आईएएस के रूप में जाना जाता है।

लाला हरदयाल का जन्म 14 अक्टूबर 1884 को दिल्ली में हुआ था। दिल्ली के चाँदनी चौक में गुरुद्वारा शीशगंज के पीछे यह मोहल्ला था, जहां उनका जन्म हुआ। गुरुद्वारा शीशगंज उसी स्थल पर है, जहाँ औरंगजेब की कठोर यातनाओं के कारण गुरु तेगबहादुर जी का बलिदान हुआ था। उनकी स्मृति में यह गुरुद्वारा 1783 में स्थापित हुआ था

लाला हरदयाल के पिता पं गोरेलाल संस्कृत के विद्वान और कोर्ट में रीडर थे, माता भोलारानी रामचरितमानस की विदुषी मानी जाती थीं। परिवार आर्य समाज के जागृति अभियान से जुड़ गया था। इस प्रकार घर और पूरे क्षेत्र में राष्ट्रीय संस्कृति की प्रतिष्ठापना का वातावरण था। इसी वातावरण में लाला हरदयाल का जन्म हुआ।

परिवार के संस्कारों ने उन्हें बचपन से राष्ट्रीय, साँस्कृतिक और सामाजिक चेतना से ओतप्रोत कर दिया था। उन्हें बचपन में माँ से रामायण की और पिता से संस्कृत की शिक्षा मिली। इसीलिए उन्हें रामायण की चौपाइयाँ और संस्कृत के अनेक श्लोक कंठस्थ थे। बचपन में संस्कृत की शिक्षा देकर ही उन्हें पढ़ने के लिये शासकीय विद्यालय भेजा गया।

उन दिनों के सभी शासकीय विद्यालयों में चर्च का नियंत्रण हुआ करता था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कैम्ब्रिज मिशन स्कूल में हुईं और महाविद्यालयीन शिक्षा सेन्ट स्टीफन कालेज में। वे पढ़ने में कुशाग्र थे और सदैव प्रथम आते। उनकी स्मरण शक्ति बहुत अद्भुत थी, उन्हें एकबार सुनकर पूरा पाठ कंठस्थ हो जाता था।

उनकी गणना ऐसे विरले व्यक्तियों में होती थी जो अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाएँ धाराप्रवाह बोल लेते थे। इस विशेषता ने उन्हें पूरे महाविद्यालय में लोकप्रिय बना दिया था। वे महाविद्यालयीन शिक्षा में कालेज में टाप पर रहे। उन्हे 200 पाउण्ड की छात्रवृत्ति मिली, इस राशि से वे आगे पढ़ने के लिये लंदन गये। उन्होंने 1905 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया । लालाजी ने वहां भारतीयो के साथ हीनता से भरा व्यवहार देखा जिससे वे विचलित हुये। यद्यपि इसका आभास उन्हें दिल्ली के सेन्ट स्टीफन कालेज में भी हो गया था।

इसके लिये उन्होने अपने छात्र जीवन में जागृति और वैचारिक संगठन का अभियान भी चलाया था लेकिन यहाँ उनका यह काम केवल संगोष्ठियों, कविताओं और डिबेट तक सीमित रहा। दिल्ली कालेज में वे ऐसे कार्यक्रम आयोजित करते जिनमें भारतीय चिंतन की प्रतिष्ठा और भारतीयों की गरिमा के साथ ओज का भाव प्रकट हो। लेकिन लंदन में वे यहीं तक सीमित न रह सके।

उन्होंने इसे संगठनात्मक स्वरूप देने का विचार किया। यह वह कालखंड था जब लंदन में मास्टर अमीरचंद क्रांतिकारी आँदोलन चला रहे थे। लाला हरदयाल जी उनके संपर्क में आये। उनका संपर्क क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से भी हुआ। श्याम कृष्ण जी ने लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना की थी। लालाजी उसके सदस्य बन गये।

क्रांतिकारियों के संपर्क और अध्ययन से लालाजी को यह भी आभास हुआ कि पूरी दुनियाँ में अंग्रेजों का दबदबा भारतीय सैनिकों के कारण है। जहां कभी भी सेना भेजनी होती है, उसमें सबसे अधिक संख्या भारतीय मूल के सैनिकों की होती लेकिन अंग्रेज उनसे सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते थे। उनकी कुशाग्रता और सक्रियता अंग्रेजों से छुपी न रह सकी, उन्हें 1906 में आईसीएस सेवा का प्रस्ताव मिला जिसे ठुकराते हुए वे लंदन में भारतीयों के संगठन और स्वाभिमान जागरण के अभियान में लग गये।

उन्होंने 1907 में असहयोग आंदोलन चलाने का आह्वान किया। उन दिनों चर्च और मिशनरियों ने युवाओं को जोड़ने के लिये एक संस्था बना रखी थी उसका नाम था- यंग मैन क्रिश्चियन एसोशियेशन। इसे संक्षिप्त में वायएमसीए कहा जाता है। इसकी शाखायें भारत में भी थीं।

लाला हरदयाल जी ने भारतीय युवकों में चेतना जगाने के लिये क्रान्तिकारियों की एक संस्था “यंगमैन इंडिया एसोसिएशन” का गठन किया। उनकी सक्रियता देख उन पर स्थानीय प्रशासन का दबाव बना, वे 1908 में भारत लौट आये। यहाँ आकर भी वे युवकों के संगठन में लग गये। उनका अभियान था कि भारतीय युवक ब्रिटिश शासन और सेना की मजबूती में कोई सहायता न करें। इसके लिये उन्होंने देशव्यापी यात्रा की। लोकमान्य तिलक से मिले। उन्होंने लाहौर जाकर एक अंग्रेजी में समाचार पत्र आरंभ किया। उनका समाचार पत्र राष्ट्रीय चेतना से भरा हुआ था।

लाला हरदयाल जी के युवा आयोजन में ही अल्लामा इकबाल ने वह प्रसिद्ध तराना सुनाया था- “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा।” यह अलग बात है कि आगे चलकर इकबाल, मोहम्मद अली जिन्ना की संगत में पड़कर पाकिस्तान गठन के लिये काम करने लगे थे। अंग्रेजों को लाला हरदयाल की सक्रियता पसंद न आई। अंग्रेजी समाचार पत्र के एक समाचार के बहाने उनपर एक मुकदमा दर्ज हुआ। इसकी खबर उन्हें लग गयी और वे अमेरिका चले गये। अमेरिका जाकर भी उनका भारतीयों को जागृत करने का अभियान जारी रहा।

उन्होंने अमेरिका जाकर गदर पार्टी की स्थापना की। उन्होंने कनाडा और अमेरिका में घूम-घूमकर वहां निवासी भारतीयों को स्वयं के गौरव और भारत की स्वतंत्रता के लिये जागरूक किया। तभी काकोरी कांड के षड्यंत्रकारियों में उनका भी नाम आया। अंग्रेजों ने उन्हें भारत लाने के प्रयास किये। पहले तो अमेरिकी सरकार ने अनुमति नहीं दी लेकिन 1938 में अनुमति दे दी।

उन्हें 1939 भारत लाया जा रहा था कि रास्ते में फिलाडेल्फिया में रहस्यमय परिस्थिति में उनकी मौत हो गई। आशंका है कि उन्हें मार्ग में विष दिया गया। उनकी मृत्यु का रहस्य आज भी बना हुआ है कि पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति अचानक कैसे शरीर त्याग सकता है। 4 मार्च 1939 को इस नश्वर संसार को त्याग कर वे परम् ज्योति में विलीन हो गये।

कोटिशः नमन ऐसे महान क्रान्तिकारी को।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
× How can I help you?