दिगम्बर जैनाचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज ने ऋषभ सभागार मे धर्मसभा में सम्बोधन करते हुए कहा कि. परस्पर वात्सल्य, समर्पण, आस्था, विश्वास एवं सहयोग से मनुष्य जीवन सुखद एवं आनन्दपूर्ण बनता है। समाज, देश, विश्व में एकता का मूल-सूत्र यदि कोई है, तो वह ‘अहिंसा”
है। अहिंसा एकता एवं विश्वशांति का उपाय है। भगवान् महावीर
स्वामी के सूत्र पर दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। “जियो और
जीने दो” । जीना मनुष्य का अधिकार है, तो जगत के प्राणियों को जीने देना हमारा कर्तव्य है। अधिकारों के साथ हमें अपने कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए। यदि जगत पर निवास करने वाले सम्पूर्ण मानव स्व-स्व के कर्तव्यों का पालन करें, तो किसी प्रकार का झगड़ा, कलह होगा ही नहीं।
गुरुओं की वाणी सुनकर, उनके अनुसार विचारधारा तदनुसार आचरण करने से ही परम- सुख प्राप्त हो सकता है। श्रद्धा- आस्था मात्र से कल्याण नहीं हो सकता है, विश्वास के साथ आचरण भी आवश्यक है। बीमार व्यक्ति को मात्र औषधि का ज्ञान स्वस्थ नहीं कर सकता है। दवाई के ज्ञान के साथ, पथ्य भोजन एवं औषधि सेवन भी करना पड़ेगा।
ज्ञान के साथ आचरण ही विशुद्ध-परिणाम बना सकता है। चर्चा के साथ चर्या भी करो। चलोगे तभी मंजिल पर पहुँच पाओगे। हीरा कीमती होता है, हीरे से भी अधिक मूल्यवान समय और आत्मा है। परमात्मा की भक्ति से कर्म घटते हैं, परन्तु परमात्मा मुझसे भिन्न हैं और मैं भिन्न हूँ ।
जो कुल को पवित्र करे वही सच्चा-पुत्र होता है। जो अनादि- अनन्त सनातन धर्म एवं संस्कृति को आगे बढ़ाये, वही सच्ची सन्तान है। जो जनक – जननी को लड-लड़कर घर से निकाल दे वह ‘लड़का’ होता है। जो मानव के जीवन को छटक जाय वह ‘गुटका’ कहलाता है। जो गुरु का अनुसरण करे वही सच्चा- – शिष्य होता है। गुणों में अनुराग करना ‘भक्ति’ है। कर्म और आत्मा को भिन्न करना मुक्ति है।सभा का संचालन पंडित श्रेयांस जैन ने किया। सभा मे प्रवीण जैन, सुनील जैन, अतुल जैन,विनोद एडवोकेट, दिनेश जैन, राकेश सभासद, मनोज जैन,धनेंद्र जअमित जैन, विवेक जैन, अशोक जैन, राजेश भारती, आलोक सर्राफ आदि थे