पहाड़ों पर पड़ती दरारों का दर्द…क्या है हकीकत और जरूरत
क्या है हकीकत और क्या है जरूरत, सोचना पड़ेगा और बचाव के हर संभव उपाय आजमाने पड़ेंगे। शीमठ के गांधीनगर वार्ड की बवीता देवी की नींद उड़ गई है। रात के समय घर के बाहर हवा के साथ सरकते सूखे पत्तों की आवाज भी उन्हें डरा देती है। वह बार-बार उठकर बाहर जाती हैं।
यह देखने कि आस-पास कोई नई दरार तो नहीं उभर आई या फिर पहले से पड़ी कोई दरार चौड़ी तो नहीं हो गई? उनके इलाके में भी सोमवार से दरारें दिखने लगी हैं। सुरक्षित स्थान पर जाना बाकी है। हाड़ कंपाती सर्द रात डर और आशंकाओं के साये में गुजर जाती है और दिन भविष्य की मुसीबतों की कल्पना करते ढल जाता है। बवीता देवी अकेली नहीं हैं, हजारों लोग परेशान हैं।
भूस्खलन के चलते पहाड़ों पर लाखों लोगों का जीवन संकट में है। अवैज्ञानिक और अनियोजित विकास के चलते पहाड़ तहस-नहस हो रहे हैं। जोशीमठ उसका एक आईना है। जोशीमठ त्रासदी का सटीक कारण जानने के लिए वैज्ञानिक रिपोर्ट का इंतजार करना होगा। सरसरी तौर पर नजर दौड़ाएं, तो इस नगर की आबादी बीते दो दशक में करीब पचास फीसदी बढ़ी।
जबकि इसी अवधि में भवनों की संख्या में 103 फीसदी से भी ज्यादा वृद्धि दर्ज की गई है। इससे निर्माण में तेजी का अंदाजा लगाया जा सकता है। पर्यटक स्थल होने के कारण आबादी के अनुपात में यहां भवन निर्माण की गति दोगुनी से भी ज्यादा रही, लेकिन जोशीमठ का भू-धंसाव का इतिहास होने के बावजूद ड्रेनेज सिस्टम विकसित नहीं किया गया।
वहां की जमीन कितना बोझ सह सकती है? इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ। वैज्ञानिक तरीके से निर्माण की व्यवस्था नहीं हुई। ऊपर से जमीन के अंदर एवं बाहर बड़े निर्माण के साथ-साथ विस्फोटकों का इस्तेमाल बेधड़क चलता रहा। देर से सही, मास्टर प्लान पर काम अब शुरू किया जा रहा है।
आपदाओं को आमंत्रण:
जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया (जीएसआई) के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रॉक मैकेनिज्म बंगलुरु के निदेशक डॉक्टर पीसी नवानी बेझिझक कहते हैं, हम खुद आपदाओं को आमंत्रित कर रहे हैं। हिमालय एक सक्रिय प्रणाली है। उसमें प्राकृतिक संतुलन बना हुआ है।
यह संतुलन कई बार भारी बारिश और भूकंप आदि प्राकृतिक कारणों से बिगड़ता है। दूसरा, मानवजनित कारणों से प्रकृति का संतुलन तब खंडित होता है, जब हम उसे गलत तरीके से छेड़ देते हैं। एक तरह से प्राकृतिक आपदा को मानवजनित अवैज्ञानिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं। जैसे नदी के बहाव क्षेत्र में मकानों के बन जाने पर आपदा का आकार कई गुना ज्यादा और घातक हो जाता है। सुरंग, सड़क, बड़े निर्माण के लिए उसके प्राकृतिक संतुलन पर असर का वैज्ञानिक अध्ययन जरूरी होता है।
निर्माण में सुरक्षात्मक उपाय करने होते हैं। ऐसा वास्तव में हो नहीं रहा। डॉक्टर नवानी ने सुझाव दिया है कि सबसे पहले लैंड बैंक बनाकर भूमि का उपयोग तय करने की जरूरत है कि किस जमीन पर भवन बनेंगे, कहां पर्यटन गतिविधियां होंगी और कहां निर्माण नहीं किया जाए। ड्रेनेज सिस्टम आवश्यक है, जिससे पानी जमीन के अंदर जाने से रुक सके।
नवानी जिस प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखना बेहद जरूरी मानते हैं, क्या वह हो रहा है? जवाब है, बिल्कुल नहीं। पहाड़ों पर भारी निर्माण बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन ड्रेनेज सिस्टम लागू नहीं है। पानी जमीन के अंदर रिसता रहता है और वह देर सबेर कमजोर जगह पर भू-धंसाव का कारण बन जाता है।
नदी-नालों के किनारे बड़े पैमाने पर अवैध निर्माण हो चुके हैं। जनप्रतिनिधि इन अवैध निर्माणों की ढाल बन जाते हैं। जिन सरकारों पर अवैध बस्तियां न बसने देने की कानूनी जिम्मेदारी है, वह वोट बैंक की राजनीति के कारण अवैध निर्माण की संरक्षक बन बैठी हैं। अदालतें अवैध निर्माण हटाने का आदेश देती हैं और सरकारें अवैध निर्माण को बचाने के लिए अध्यादेश ले आती हैं।
इस मामले में धुर विरोधी राजनीतिक दलों में भी अघोषित सहमति है। लोगों को भरोसा है कि वोट के दबाव में अवैध निर्माण कभी नहीं टूटेगा। लिहाजा नदी, नाले और जंगल सब जगह अवैध निर्माण बदस्तूर जारी है। विधायक और सांसद निधि से उन अवैध निर्माणों तक सुविधाएं पहुंचाई जा रही हैं।
वहां सरकारी खर्च पर योजनाएं बन रही हैं। जब भूस्खलन या नदी नालों में बाढ़ आती है, तब इन अवैध निर्माणों के कारण वैध निर्माण करने वाले भी चपेट में आते हैं। कई बेकसूर नागरिक इन हादसों में जान गंवा बैठते हैं। पहाड़ों पर बिना भूवैज्ञानिक सुझावों के छोटे-बड़े हर तरह के निर्माण कार्य हो रहे हैं।
सरकारी महकमे बिना वैज्ञानिक राय लिए निर्माण करवा रहे हैं। वन पंचायत और सिविल जंगल मनमाने तरीके से मशीनों से उधेड़े जा रहे हैं। कई सरकारी निर्माण अवैध रूप से पेड़ काटकर करवाए जा चुके हैं। जब सरकारी तंत्र ही अवैध निर्माण में हिस्सेदार हो, तो क्या किया जाए?
धीमा विस्थापन और पुनर्वास:
भू-धंसाव या भूस्खलन पहाड़ी राज्यों के लिए बड़ी समस्या बनता जा रहा है। प्राकृतिक असंतुलन, अनियोजित निर्माण और जलवायु परिवर्तन के कारण पहाड़ों पर खतरे बढ़ रहे हैं। उत्तराखंड के 411 गांव आपदा के लिहाज से अति संवेदनशील पाए गए हैं। दस साल में सिर्फ 88 गांवों से सुरक्षित स्थानों पर पुनर्वास हो पाया है। बाकी गांवों के लोग खतरे की जद में जीने को मजबूर हैं। विस्थापन के लिए बड़े बजट के साथ ही पर्याप्त भूमि मिल पाना बड़ी चुनौती है।
हालत यह है कि भूस्खलन से प्रभावित कई लोग पिछले कुछ वर्ष से पिथौरागढ़, अल्मोड़ा जिलों के चार राहत शिविरों में रह रहे हैं। देहरादून में भी एक ऐसा ही राहत शिविर चलाया जा रहा है। उन्हें सुरक्षित स्थानों पर बसाने का काम नहीं हो पा रहा है। जाहिर है, जोशीमठ जैसे शहर को पूरी तरह विस्थापित करना आसान नहीं है, लेकिन रास्ता निकालना पड़ेगा।
पानी भी घटने लगा:
पहाड़ों के स्वभाव में कई और चिंताजनक बदलाव आ रहे हैं। यहां तेजी से जलस्रोत सूख रहे हैं। उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 62 प्रतिशत जलस्रोतों में लगभग बीस साल में 50 प्रतिशत पानी कम हो चुका है। इसी गति से पहाड़ों के स्रोतों पर पानी घटता गया, तो अगले बीस साल में यह स्रोत पूरी तरह सूख चुके होंगे।
दस फीसदी जलस्रोत ऐसे हैं, जिनमें 76 प्रतिशत पानी कम हो गया है। ये स्रोत 2030 तक लगभग पूरी तरह सूख जाएंगे। पानी सूखने का यह सिलसिला इससे तेज भी हो सकता है। उस स्थिति में दिल्ली समेत कई राज्यों में अगली पीढ़ियों को न केवल भयंकर जलसंकट का सामना करना होगा, बल्कि खुद पीने के पानी के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
बढ़ते-जलते जंगल:
उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्रों में ट्री लाइन हर साल ऊपर की तरफ खिसक रही है। अल्मोड़ा के जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान के एक शोध के मुताबिक, बुरांश की प्रजातियां सामान्य तौर पर समुद्र की सतह से 3,200 मीटर ऊंचाई तक ही मिलती थीं। गढ़वाल के तुंगनाथ में यह 3,800 मीटर तक जा पहुंची हैं।
बागेश्वर के पिंडारी में 4,400 मीटर तक जा चुकी हैं। इसका अर्थ हुआ कि ट्री-लाइन अब छह सौ से 12 सौ मीटर तक उच्च हिमालय की ओर सरक चुकी है। इससे जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेत मिलते हैं। जाड़ों में जंगलों के जलने की घटनाएं नए संकट की ओर इशारा कर रही हैं।
ये घटनाएं जंगलों की विविधता और जमीन को बांधने की वनस्पतीय क्षमता को कुप्रभावित करती हैं। सरकारी तंत्र के पास गर्मियों की वनाग्नि छोड़िए, जाड़ों की आग रोकने की प्रभावी योजना नहीं है। हिमालयी क्षेत्र भूकंप के लिहाज से भी बेहद संवेदनशील है। बड़े भूकंप अवैज्ञानिक निर्माण के कारण तबाही के प्रभाव को कई गुना बड़ा कर सकते हैं।
उत्तराखंड में साल 2022 में करीब नौ सौ छोटे भूकंप दर्ज किए गए। इनमें अधिकतर तीन मेग्नीट्यूड से कम के थे। जो लोगों को महसूस नहीं हुए, मगर सेस्मोग्राफ में दर्ज हैं। राज्य में बीते एक साल में 13 भूकंप ऐसे आए, जिनकी तीव्रता चार मेग्नीट्यूड से ज्यादा रही। राहत की बात यह थी कि 6 मैग्नीट्यूड या उससे अधिक का नुकसान करने वाला भूकंप उत्तराखंड में इस अवधि में नहीं आया। बड़ा भूकंप आया, तो पहाड़ों का अवैज्ञानिक विकास भारी विनाश का कारण बन सकता है।
पर्यटन पहाड़ी इलाके की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है, लेकिन उच्च हिमालयी अति संवेदनशील क्षेत्र में क्या असीमित मानवीय गतिविधियों की इजाजत मिलती चाहिए? इस सवाल को नजरअंदाज करना महंगा पड़ सकता है। पिछली पीढ़ियों के पारंपरिक तरीकों के साथ ही वैज्ञानिक, नियोजित और प्रकृति के साथ संतुलित विकास का रास्ता अपनाना ही होगा।
विस्थापन, पुनर्वास और अन्य सावधानियां
जोशीमठ में पड़ी दरारों ने इतना तो समझा दिया है कि आने वाले दिनों में पहाड़ों और पहाड़ों पर रहने वालों का पूरा खयाल रखना पड़ेगा। अफवाहों पर खास नजर रखने की जरूरत है। जोशीमठ क्षेत्र में ही तरह-तरह की अफवाहों का बाजार गर्म है। पहाड़ों पर बन रही सुरंगों या सड़कों या विकास के खिलाफ माहौल बनने से रोकना भी जरूरी है। 600 से ज्यादा परिवारों को विस्थापन और पुनर्वास से गुजरना है, सरकारों को सेवा भाव के साथ सामने आना चाहिए, ताकि किसी तरह से अशांति न फैले।
धूल फांकती सिफारिशें
1976 में मिश्रा समिति ने जोशीमठ के आसपास भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। उत्तर प्रदेश सरकार के एक शीर्ष नौकरशाह एम सी मिश्रा की अध्यक्षता में गठित समिति के सुझाव समय के साथ आए-गए हो गए। रिपोर्ट के अनुसार, जोशीमठ रेत और पत्थर के जमाव पर स्थित है, यह मुख्य चट्टान पर नहीं है।
यह एक प्राचीन भूस्खलन पर स्थित है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अलकनंदा और धौलीगंगा की नदी धाराओं द्वारा कटाव भी भूस्खलन लाने में अपनी भूमिका निभा रहा है। समिति की सिफारिशों में शामिल था कि पेड़ और घास लगाने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जाए, ढलानों पर कृषि से बचा जाए, पक्की नाली प्रणाली का निर्माण किया जाए, ताकि गड्ढों को बंद किया जा सके और सीवर लाइन के माध्यम से सीवेज का पानी बह सके।
इसके अलावा, रिसाव से बचने के लिए पानी को जमा नहीं होने देना चाहिए और इसे सुरक्षित क्षेत्र में ले जाने के लिए नालियों का निर्माण किया जाना चाहिए और सभी दरारों को चूने, स्थानीय मिट्टी और रेत से भरना चाहिए, पर ऐसा नहीं किया गया।