बड़ौत। नगर के श्री अग्रसेन भवन में सनातन धर्म प्रचारिणी महासभा के तत्वाधान में द्वितीय दिवस की कथा पूर्व सुबह 7:00 बजे पंचांग पीठ नवग्रह मंडल वास्तु मंडल क्षेत्रपाल मंडल पार्थिव रुद्राभिषेक पितृ तर्पण, आचार्य उमेश कौशिक के सानिध्य में विधि विधान से कराया गया तेज मां धर्म प्रकाश शर्मा, सहायक यजमान सोनवीर सिंह, महेंद्र शर्मा, राकेश गुप्ता पूजा की साड़ी में सम्मिलित रहे दोपहर में कथा प्रारंभ करते हुवे कथा व्यास आचार्य अतुल कृष्ण जी ने संस्कार पर प्रकाश डाला समय पर किया हुआ कार्य सफल होता है जैसे भजन करने का समय प्रातः सूर्य उदय से पूर्व अर्थात तारों के रहते हुए जो भजन किया जाता है वह उत्तम होता है। सुखदेव जी के जन्म के विषय में बताते हुए आचार्य प्रवर ने सुखदेव जी के जन्म के विषय में बताया ये महर्षि वेद व्यास के अयोनिज पुत्र थे और यह बारह वर्ष तक माता के गर्भ में रहे। कथा कुछ इस प्रकार है। भगवान शिव, पार्वती को अमर कथा सुना रहे थे। पार्वती जी को कथा सुनते-सुनते नींद आ गयी और उनकी जगह पर वहां बैठे एक शुक ने हुंकारी भरना प्रारम्भ कर दिया। जब भगवान शिव को यह बात ज्ञात हुई, तब उन्होंने शुक को मारने के लिये दौड़े और उसके पीछे अपना त्रिशूल छोड़ा।
शुक जान बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता रहा, भागते-भागते वह व्यास जी के आश्रम में आया और सूक्ष्मरूप बनाकर उनकी पत्नी के मुख में घुस गया। वह उनके गर्भ में रह गया। ऐसा कहा जाता है कि ये बारह वर्ष तक गर्भ के बाहर ही नहीं निकले। जब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं आकर इन्हें आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा, तभी ये गर्भ से बाहर निकले और व्यासजी के पुत्र कहलाये। गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो गया था। आचार्य जी के मुखारविंद से नारद जी के जन्म की कथा सुनकर भक्त बहुत प्रसन्न हुए देवर्षि नारद पहले गन्धर्व थे। एक बार ब्रह्मा जी की सभा में सभी देवता और गन्धर्व भगवन्नाम का संकीर्तन करने के लिए आए। नारद जी भी अपनी स्त्रियों के साथ उस सभा में गए। भगवान के संकीर्तन में विनोद करते हुए देखकर ब्रह्मा जी ने इन्हें शाप दे दिया। जन्म लेने के बाद ही इनके पिता की मृत्यु हो गई। इनकी माता दासी का कार्य करके इनका भरण-पोषण करने लगीं।
एक दिन गांव में कुछ महात्मा आए और चातुर्मास्य बिताने के लिए वहीं ठहर गए। नारद जी बचपन से ही अत्यंत सुशील थे। वह खेलकूद छोड़ कर उन साधुओं के पास ही बैठे रहते थे और उनकी छोटी-से-छोटी सेवा भी बड़े मन से करते थे। संत-सभा में जब भगवत्कथा होती थी तो यह तन्मय होकर सुना करते थे। संत लोग इन्हें अपना बचा हुआ भोजन खाने के लिए दे देते थे।
साधुसेवा और सत्संग अमोघ फल प्रदान करने वाला होता है। उसके प्रभाव से नारद जी का हृदय पवित्र हो गया और इनके समस्त पाप धुल गए। जाते समय महात्माओं ने प्रसन्न होकर इन्हें भगवन्नाम का जप एवं भगवान के स्वरूप के ध्यान का उपदेश दिया।
एक दिन सांप के काटने से उनकी माता जी भी इस संसार से चल बसीं। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े। एक दिन जब नारद जी वन में बैठकर भगवान के स्वरूप का ध्यान कर रहे थे, अचानक इनके हृदय में भगवान प्रकट हो गए और थोड़ी देर तक अपने दिव्य स्वरूप की झलक दिखाकर अन्तर्धान हो गए। इस अवसर पर ब्रह्म सिंह गोयल पंडित घनश्याम शर्मा डॉक्टर सुरेंद्र शर्मा शिव ओंकार शर्मा देवदत्त कौशिक वैभव आत्रेय सत्येंद्र शर्मा चियासेव्य कनाडा से राधेश्याम तोमर रविंद्र तिवारी एवं मात्र शक्ति अलका शर्मा सुमन देवी सविता देवी संगीता आदि भक्तगण कथा का रसपान किया