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खेत के ऊपर मेड़, मेड़ के ऊपर पेड़‘‘ मेड़बन्दी विधि अपनाने से बढ़ रहा है भू-जल स्तर

प्रदेश सरकार भू-जल स्तर बढ़ाने के लिए वर्षा जल को खेतों में रोकने के लिए विशेष कार्यक्रम चला रही है।

सहारनपुर। प्रदेश सरकार भू-जल स्तर बढ़ाने के लिए वर्षा जल को खेतों में रोकने के लिए विशेष कार्यक्रम चला रही है। भारतीय संस्कृति में पुरखों की सबसे पुरानी भू-जल संरक्षण विधि ’खेत के ऊपर मेड़, मेड़ के ऊपर पेड़’ वर्षा बूंदे जहां गिरे, वहीं रोंके। जिस खेत में जितना पानी होगा, खेत उतना अधिक उपजाऊ होगा। मानव जीवन की सभी आवश्यकताएंे जल पर निर्भर है तभी तो जल ही जीवन कहा गया है। मनुष्य को जब से भोजन की आवश्यकता पड़ी होगी हमारे पुरखों ने भोजन का आविष्कार किया होगा। एक स्थान पर फसल उगाया गया होगा, फसलें पैदा की गई होगी। जमीन समतल कर खेती योग्य बनाया गया होगा। खाद्यान्न पैदा करने के लिए खेत का निर्माण तय हुआ होगा, तभी से मेड़बन्दी जैसी जल संरक्षण की विधि का आविष्कार हुआ होगा। यह हमारे देश के पुरखों की विधि है जिनसे खेत खलिहान का जन्म हुआ है। जिन्होंने जल संरक्षण की परम्परागत प्रमाणित सरल सर्वमान्य मेड़बन्दी विधि का आविष्कार किया है। मेड़बन्दी से खेत में वर्षा का जल रूकता है और भू-जल संचय होता है। इससे भू-जल स्तर बढ़ता है और गांव की फसलांे का जलभराव के कारण होने वाले नुकसान से बचाता है। भूमि के कटाव के कारण मृदा के पोषक तत्व खेत में ही बने रहते है,जो पैदावार के लिए आवश्यक है। नमी संरक्षण के कारण फसल सड़ने से खेत को परम्परागत जैविक खाद की ऊर्जा प्राप्त होती है। मेड़बन्दी से एक ओर जहां भूमि को खराब होने से बचाव होता है वहीं पशुओं को मेड़ पर शुद्ध चारा, भोजन प्राप्त होता है। इसे मेड़बन्दी, चकबन्दी, घेराबन्दी, हदबन्दी, छोटी मेड़बन्दी, बड़ी मेड़बन्दी तिरछी मेड़बन्दी सुविधानुसार जैसे अलग क्षेत्रों मंे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। धान, गेहूं की फसल तो केवल मेड़बन्दी से रूके जल से ही होती है। हमारे देश के पूर्वज जल रोकने के लिए खेत के ऊपर मेड़, मेड़ के ऊपर फलदार, छायादार औषधीय पेड़ लगाते थे। जिसकी छाया खेत में फसल पर कम पड़े जैसे बेल, सहजन, सागौन, करौंदा, अमरूद, नीबू, बेर, कटहल, शरीफा के पेड़ लगाये जा सकते हैं। यह पेड़ इमारती लकड़ी, आयुर्वेदिक औषधियों, फलों के साथ अतिरिक्त आय भी देती है। इन पेड़ों की छाया खेत में कम पड़ती है। इनके पत्तों से खेत को जैविक खाद मिलती है, पर्यावरण शुद्ध रहता है। मेड़ के ऊपर हमारे पुरखे अरहर, मूंग, उर्द, अलसी, सरसों, ज्वार, सन जैसी फसलें पैदा करते रहे हैं जिन्हें पानी कम चाहिए। जमीन सतह से ऊपर हो, मेड़ से अतिरिक्त उपज की फसल ले सकते हैं। मेड़बन्दी से उसर भूमि को उपजाऊ बनाया जा रहा है। जहां-जहां जल संकट है उसका एकमात्र उपाय है वर्षा जल को अधिक से अधिक खेत मंे मेड़बन्दी के माध्यम से रोकना चाहिए। मेड़बन्दी के माध्यम से खेत में वर्षा जल रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश भर के प्रधानों को पत्र लिख मेड़बन्दी कर खेत में वर्षा बूंदों को रोकने की अपील की है। प्रधानमंत्री ने कहा कि परम्परागत विधियों से भू-जल संरक्षण करें। जिससे हमारी भूजल सम्पदा बनी रहे। हमारे देश में बड़ी संख्या में तालाब, कुओं, निजी ट्यूबबेल के सिंचाई साधन होने के बावजूद भी कई हजारों हेक्टे0 भूमि की खेती वर्षा जल पर निर्भर है। वर्षा तो हर गांव में होती है, वर्षा के भरोसे खेती होती है। खासकर बुन्देलखण्ड के इलाके में पहाड़ी, पठारी क्षेत्र के खेतों में मेड़बन्दी के माध्यम से जल रोककर उपजाऊ बनाया जा रहा है। किसान ड्रिप पद्धति, टपक पद्धति, फुहारा पद्धति किसी भी पद्धति से फसल की सिंचाई करें पानी तो सभी विधि को चाहिए, इसलिए जल संरक्षण जरूरी है। प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किसानों के लिए खेत का पानी खेत में रोकने पर बल दिया है। सामुदायिक आधार पर जल संरक्षण की प्राचीन परम्परा हमारे देश में रही है, सिंचाई के दो ही साधन है या तो भू-जल या वर्षा जल। भू में जब जल होगा, तभी नवीन संसाधन चलेंगे। आज भूमिगत जल पर जबरदस्त दबाव है। भू-जल नीचे चला जा रहा है। इसलिए भूजल का संरक्षण मेडबन्दी से किया जा रहा है। यदि वर्षा बूंदों को पकड़ना है तो मेड़बन्दी जरूरी है यह कोई बड़ी तकनीक नहीं है। चौड़ी ऊंची मेड़ अपनी मेहनत और श्रम से खेत में बनाई जा सकती है। जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होगी और भूजल स्तर भी बढ़ेगा।

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