एशिया की सबसे बड़ी गुड मंडी कहे जाने वाले उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर निवासी राष्ट्रीय स्तर के कवि 15 से अधिक पुस्तकों व 1000 से अधिक कविताओं और साहित्यक लेख लिखने वाले, बैंक की सेवाओं से रिटायर होकर खुद को विख्यात कवि साबित करने वाले, अपने 40 वर्ष पुराने घनिष्ठ मित्र डॉ. कीर्ति वर्धन अग्रवाल से मिलने के लिए मैं उनके निवास पर गया। घंटी की आवाज पर दरवाजा खोलकर गले से लिपटने वाले मित्र मुझे ड्राइंग रूम तक ले गए। बैठकर बातें होने लगी। मैंने उनकी मेज पर एक तरफ रखी उनकी पुस्तकों को देखा, जिनमें इजाफा हुआ था तो वहीं मैज के बीच में एक उल्टी खुली पुस्तक पर मेरी नज़र पड़ी। जिस पर लिखा था ‘कुछ सम कुछ विषम’ पुस्तक के लेखक का नाम देखा तो मैं उछल गया क्योंकि यह पुस्तक भी डॉ. धर्मपाल महेंद्र जैन की थी। मैंने मित्र से पूछा आप इतने बड़े कवि होकर भी टोरंटो कनाडा में रहने वाले भारतीय प्रवासी धर्मपाल महेंद्र जैन की पुस्तक पढ़ रहे हो? उन्होंने कहा मैं उनकी कई पुस्तके पढ़ चुका हूं। वह बेहतरीन कवि हैं, साहित्यकार हैं, विदेश में रहकर भी भारतीय संस्कृति, संस्कारों का बोध अपनी कविताओं और साहित्यिक रचनाओं में करने वाले धर्मपाल महेंद्र जैन जैसे कवि व साहित्यकार को किसी एक देश की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। उनको पूरे संसार का कवि व लेखक कहा जाए तो यही उनके कद के मुफीद होगा।
अपने मित्र के मुख से यह शब्द सुनकर मेरे मन में कविता हिलोरे लेने लगी। ‘कुछ सम कुछ विषम’ को पढ़ने की ललक पैदा हो गई। मन अशांत हो गया। अंतर्मन में द्वंद चल रहा था और दृष्टि इस बुक पर जमी थी। मैंने उन्हें बताया कि मैंने डॉ. धर्मपाल महेंद्र जैन की पहली पुस्तक ‘इस समय तक’ का कविता संसार पढ़ा है। जिससे मेरे शरीर में, हृदय में, मन- मस्तिष्क में, खून में कविता संचार होने लगा है। मुझे उनकी कविताओं की पढ़ने की भूख हो गई है। मित्र बोले- आप तो पहले कविता शून्य ह्रदय के थे? मैंने कहा-हा था लेकिन अब नही। मैंने प्रश्न किया कि क्या यह पुस्तक आप मुझे पढ़ने के लिए देंगे? उन्होंने सच्चे मित्र की मित्रता निभाते हुए अपना फोन उठाया और अमेजन को ‘कुछ सम कुछ विषम’ का ऑर्डर कर दिया। मित्र ने मुझे कहा दो दिन में पुस्तक आपको मिल जाएगी लेकिन यह पुस्तक में पढ़ रहा हूं और इसे अधूरा नहीं छोड़ सकता। मैंने पाया कि ‘कुछ सम कुछ विषम’ कविता संग्रह वास्तव में पहली पुस्तक से भी बहुत आगे निकल कर प्रेरणा देता है। यह प्रयोजनीय है। यह संसार के सभ्य व असभ्य सभी जातियों के लिए है। मैं अब कह सकता हूं कि चाहे इतिहास ना हो, दर्शन ना हो, विज्ञान ना हो, पर कविता अवश्य ही होनी चाहिए। यह मनुष्य की ऐसी भूख है, जिसकी तृष्णा नहीं मिटती। इसलिए इसकी खास जरूरत है। आइए आपको ‘कुछ सम कुछ विषम’ से हुए आत्मबोध से आपको रूबरू कराऊं…..
हर चीज का अपना महत्व है। यह हमारे पर निर्भर करता है कि हम उसका उपयोग किस तरह से करते हैं। चाहे प्रकृति द्वारा बनाये गए संसाधन हो या शरीर? कवि की पहली ही कल्पना ‘ बहुत -सी चीजें बेकार हैं उनके हिसाब से’ है…
आप बताएँ, आप खुद को बदलेंगे
उनके हिसाब से या
उन्हें बदल देंगे।
प्रेम का सबक सिखलाती कविता कहती है….
प्रेम करने के लिए तो बहुत कुछ था
प्रेम करना ही नहीं आया।
हॉस्टलों में व्यवस्था पर गहरा कटाक्ष किया गया है जिसकी झांकी इन दो लाइनों से मिलती है…
कोई नहीं कहता पुराने चादर और कंबल बास मार रहे हैं
आदिवासी बच्चे हैं, बास तो इनके शरीर में बसी है।
अपनी प्रियसी को याद करते हुए कवि ने कहा है…
ऐसा कुछ शेष नहीं बचा जो जीवन दे मुझे
यहाँ तुम नहीं हो तो मेरे लिए कुछ नहीं है।
धागे से बंधी कामनाएं के शीर्षक वाली कविता में माँ की तुलना आत्मा से करते हुए कवि ने कहा है कि..
तुलसी नहीं है अब
पुरखों की यादें नहीं है अब
परंपरा की बातें नहीं है अब
अब भगवान भी नहीं आ बैठते
कभी चबूतरे पर
आत्मा चली जाए तो शेष क्या बचता है।
बेबस स्त्री का दर्द उकेरते हुए डॉ धर्मपाल महेंद्र जैन लिखते हैं…
उसके पोंछ दिए गए सपनों के लिए
प्रार्थनाएँ भ्रम हैं
अधर्य और समिधाएँ मात्र धुंआ।
आदमी होने का इतिहास नामक कविता जातिवाद व धर्मवाद में बंटते इंसान पर जबरदस्त चोट करती है..
मैं सिख, ईसाई, हिन्दू, मुस्लिम क्यों हूँ
वे नहीं बता सके कि मैं आदमी क्यों हूँ।
घटती जमीन, खत्म होते गांव और बढ़ते जमीन माफियाओं पर कवि का कटाक्ष कुछ यूं है…
मेरे भीतर जो गांव है
अब जमीन पर नहीं है।
माफियां व नेताओं के कृत्यों को उजागर करती आत्महंता कविता..
डर गई माँ एक दिन
उसकी संतानों में घुस आए माफियां
रसूखी ठेकेदार
और जिंदा जंगल नीलाम करने वाले सफेदपोश।
खत्म होती आदमी की महत्ता को कवि ने कुछ यूं उजागर किया है…
मशीनी हाथ(रोबोट) एक दिन
मशीनी मुंह तक जाने लगेंगे
आदमी को दबोच कर।
देश की व्यवस्था व संविधान पर कवि ने दिखाया आईना…
जहाँ तमाशा देखते लोगों ने जादूगर की टोपियां पहन ली हैं
जहाँ गप्पे मारते हुए लोगों ने जोड़- जुगाड़ से कुर्सियां बांट ली हैं।
गिनती की तरह सम और विषम को
साथ लेकर चलती हो कविता
कि कैसा भी हो अंक
एकमेक हो जाए संख्या बनाने में।
मोक्ष के नाम पर गंगा को अपवित्र करने, ईश्वर की शक्ति को ही ज्ञान विज्ञान मानने, किन्नरों की वेदना, समाज मे अपनी कथनी से जहर घोलने वालों की तुलना सपेरे से करती कविता ‘भाषा क्या बन गई’,तटस्थ समय, रंगों की कमी नहीं थी, माँ तुम कैसे हंस लेती हो, जायकेदार उंगलियां, भला मालिक आदि ऐसी अनंत कविताएं कवि ने अपने जज्बात कागज पर उकेरे है, जिनका दर्द, जिनका मर्म और जिनका अहसास ही बहुत कुछ प्रदान कर देता है। रह जाती है यह बहुत कुछ फिर से अनवरत पढ़ने की लालसा।
कुछ ‘ कुछ सम कुछ विषम’ कृति के छंद मुक्त, कविता, गीत प्रेरक है। वह मनन- चिंतन हेतु प्रेरित करते हैं। धर्मपाल महेंद्र जैन का यह संग्रह प्रवासी भारतीय की एक सुखद प्रतीति है तो संवेदनाओं की कर्क रेखा है। परंपराओं का बौद्ध दर्शन है। वैज्ञानिक चेतना है। जातीय स्मृतियों के साथ विश्वबोध है। मनुष्यता का गान है। धरती से लेकर ब्रह्मांड तक का फिक्र है। साध्य की सुचिता साधन के अशौच को ढक रही है। मनके इकट्ठा कर उन्हें तरतीब से पिरोकर बनाई गई सुंदर माला की प्रस्तुति है। धर्मपाल महेंद्र जैन की ‘कुछ सम कुछ विषम’ में मनोरंजन के उपरांत कुछ और भी है और वही सब कुछ है। मुझे मेरे मित्र डॉ कीर्ति वर्धन अग्रवाल ने इस कृति को ऐसे खजाने के रूप में भेंट किया है, जिसे वर्षों तक संजोग कर रखा जाएगा। मैत्रिमयी और अहिंसक महावीर को समर्पित ‘कुछ सम कुछ विषम’ का मूल्य एक पिज़ा से भी कम अर्थात 200 रुपये है। इसके प्रकाशक मशहूर आईसेक्ट पब्लिकेशन, एमपी नगर, भोपाल हैं तो आकर्षित करने वाला आमुख लीलाधर मंडलोई का है।